भारतीय समाज धर्म और परिवर्तन
प्राचीन काल से ही मनुष्य को
परिवर्तित होने की बड़ी ही प्रबल ईछा रही है I वह सदैव ही अपने आपको बदलने और बेहतर साबित
करने की होड में भागता रहा है I मनुष्य ने बाहरी तल पर तो बहुत तरक्की की, अपने रहन-सहन
को बदल पाषाण युग से आज हम मोबाइल युग में जी रहें है, लेकिन
आंतरिक तल पर आज भी हम उसी पाषाण युग में जी रहें हैं i मेरे कहने
का अभिप्राय यह है कि हम आज भी अन्धविश्वास की जंजीरों में जकड़े हुए हैं | यदि ऐसा न
होता तो हम आज भी लाल किताब, श्रीयन्त्र,
जंत्र -मंत्र , ताबीज आदि
बेचने वाले बाबाओं की दुकाने न चला रहे होते , और समोसे-गोलगप्पे खिला कर कृपा बांटने का
दावा करने वाले बाबाओं की तिजोरिया न भर रहे होते | हाल ही में हमने आसाराम बापू और रामपाल जैसे
पाखंडी लोगों को जेल में जाते देखा है | पर फिर भी हमें आवश्यकता है स्वयं जाग्रत
होने की एवं अपनी पीढ़ी को जगाने की | क्योंकि जब-जब भी धर्म की बात की जाती है तो
कई तरह के विवाद खड़े हो जाते हैं ,
और लोग एक दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं , हाल ही
में त्रिलोकपुरी दिल्ली में हुआ दंगा भी
इसका एक उदहारण है | इन सब घटनाओ से बचने के लिए हमें अपनी धार्मिक सोच में बदलाव
लाना होगा | भले ही हम आज खुद को मॉडर्न कहने का दावा कर रहें हैं , किन्तु हम
कितने आधुनिक हैं , हम स्वयम ही जानते हैं | कितनी विचित्तर विडंम्बना है की हम अनुकरण
तो करते हैं पश्चिमी सभ्यता का ,
लेकिन पश्चिमी सभ्यता पर ही उँगलियाँ उठाते
हैं कि उनकी वजह से हमारे समाज का पतन हो रहा है | ज़रा गौर से देखें तो हम पाएंगे कि उन देशों
ने हर क्षेत्र में तरक्की क़ी है |
उन लोगों ने कभी धर्म को अपनी कमज़ोरी नहीं
बनने दिया, बल्कि धर्म को अपनी शक्ति बना कर उनत्ति एवं प्रगति का मार्ग
प्रशस्त किया है | आज जापान, चीन , अमेरिका जैसे देश ऊंचाइयों को छू रहे हैं | और हम
धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों के हाथों क़ी कठपुतलियाँ बन कर भारत क़ी प्रगति
को नष्ट किये जा रहें हैं |
अंत में संक्षेप में मैं यही कह कर
समाप्त करूंगा कि धर्म के नाम पर लड़ना- झगड़ना छोड़ कर एक हो जाएँ | भारत एक
धर्म निरपेक्ष राज्य है , यहाँ सब को अपनी ईछानुसार धर्म पालन करने क़ी स्वंतरता है | कंकर-पत्थर
के बने धार्मिक स्थानो पर झगड़ने क़ी बजाय अपने मन को ही मंदिर-मस्जिद का रूप दें
दें , ताकि मेरा भारत फिर से सोने क़ी चिड़िया बन सके |
आज हमें भगवतगीता को राष्ट्रीय
ग्रन्थ बनाने क़ी आवश्यकता नहीं ,
बल्कि गीता का वास्तविक ज्ञान यानि मनुष्य
को कर्मयोगी बनने क़ी प्रेरणा देने आवश्यकता है , ताकि देश एवं समाज तरक्की कर सके |
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